पैसा और मजबूरी

           आज मैं बहुत खुश था क्योंकि इंग्लैंड से आया मेरा दोस्त अपने किसी काम से शहर आ रहा था और उसने मुझे मिलने के लिए शहर आने के लिए बुलाया और एक ट्रैवल एजेंट से 15 मिनट में आने के लिए कहा और कहा कि वह भी वही मिल रहा है। ठीक 15 मिनट मैं मैंने बारिश में राहगीरों से लिफ्ट ली और उसी जगह पहुंच गया । वहां पहुंचने के लिए ऑटो भी थे लेकिन मुझे पूरा महीना ₹600 में निकालना था क्योंकि मेरे पास ₹600 रुपए बचे थे और 1 महीने के लिए इतने रुपए बहुत कम थे। हम लगभग 1 साल के बाद इकट्ठे हुए थे। हम एक दूसरे का हालचाल पूछा और एजेंट के पास बैठ गए।

            मेरे दोस्त के पिता जी के स्वर्गवास होने के बाद उसकी माता जी भारत में अकेली रह रही हैं। हमें उनके पेपर एजेंट के पास जमा कराने थे और 1 - 2 पेपर फिर दूसरे शहर लेकर जाने थे जिसमें एक दो गलतीयां थी।

            मेरे दोस्त का एक और दोस्त उसको भी हमने मिलना था। उसको मिलने के लिए हम जहां मेरे दोस्त की गाड़ी खड़ी थी वहां के लिए रिक्शा में सवार हो निकल गए ओर गाड़ी उठा कर दूसरे दोस्त की ओर चल पडे़। ड्राइव में कर रहा था क्योंकि मेरा दोस्त यहां शहर में गाड़ी चलाने में डरता था और इस लिए उसने अपनी गाड़ी किसी और जगह पार्क की हुई थी। फिर हम दूसरे दोस्त के पास पहुंच गए जहां वह जॉब करा था उसको वहां से हमने साथ में गाडी़ में बिठा लिया। बातचीत करते फिर खाने की बातें होने लगी कि किसी जगह बैठ कर खा पी लेते हैं।

           दूसरा दोस्त हमें एक महंगे रेस्टोरेंट में ले गया। वेटर खाने पीने की सूची को साथ लेकर आया और दोनों मित्र भोजन की सूची देखने लगे और मैं उन्हें देखकर हैरान था क्योंकि मुझे तो दाल मखनी, चपाती के अलावा कोई और आर्डर नहीं करना आता था। खाना आ गया लेकिन एक अलग ही चिंता घर कर रही थी क्योंकि मेरे पास पैसे कम थे मुझे यह भी पता था कि मेरे दोस्त ने खाने के पैसे चुका देने हैं लेकिन मैं अंदर ही अंदर सोच रहा था।

            खाना समाप्त होने के बाद दोनों मित्रों ने एक दूसरे को भुगतान करने की जिद करने लगे और दूसरे दोस्त ने कहा भाई आप मेरे पास आए हो मैं पैसे दूंगा और मेरे दोस्त को उसने कसम दे दी वह टेलीफोन एक्सचेंज में सरकारी करमचारी है। यह सब कुश मैं देख रहा था और सोच रहा था और अपने आपको कोस भी रहा था कि मैं झूठ- मूठ भी ना कह सका और अपनी जेब में देखने की हिम्मत नहीं कर सका । क्योंकि खाने का बिल ₹750 था पर जो मेरी जेब में ₹600 थे। जो अभी भी मुझे पूरा एक महीना आगे दिखाई दे रहा था। मैं सीधे-सीधे यह कहने में भी संकोच करा था कि भाई मेरा हाथ अभी तंग है।

            चेहरे पर खामोशी थी मगर उन्हें एहसास नहीं होने दिया कि मैं क्या सोच रहा हूं क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि वह यह सब जाने कि मैं कैसे हालातों से गुजर रहा हूं। मैं हंसा और चलने के लिए बोला और हम दूसरे दोस्त के ऑफिस से उसको छोड़ कर निकल गए और कागजात सही करवाने के लिए हम दूसरे शहर चले गए।

            वहां काम के सिलसिले में शाम पड़ गई और वापिस आ कर हमने फिर खाना खाने बैठ गए। जिसका बिल का भुगतान फिर मेरे दोस्त ने ही किया। पता नहीं क्यों मैं चुप था कि मैं झूठ मूठ की सुलह ना मार सका।

            मुझे नहीं पता कि मेरा दोस्त मेरे बारे में क्या सोच रहा होगा कि यह पैसे निकालने में इतना कंजूस क्यों हो गया है...? लेकिन वह नही जानता था कि "पैसा और मजबूरी" का मेरे जीवन में एक ही अर्थ हो चुका है।


धन्यवाद।

By Pardeep Babloo

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